तीर नज़रों के तो पलकों की कमाँ रक्खे हैं,
उनकी क्या बात है फूलों की जुबाँ रक्खे हैं
हम तो आँखों में सँवरते हैं वहीं सँवरेंगे
हम नही जानते आईने कहाँ रक्खे हैं
अपने कातिल भी उसी रोज़ से शर्मिंदा हैं
हम भी खामोश बहुत अपनी जुबाँ रक्खे हैं
दिल कभी रेत का साहिल नहीं होने देते,
हमने महफूज वो कदमों के निशाँ रक्खे हैं
जिन पे तहरीर है बचपन की मोहब्बत अपनी,
अब मेरे घर के वो दरवाजे कहाँ रक्खे हैं ......!!
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