Friday, July 31, 2015

मंज़िल


पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती है
रात ख़ैरात की सदके की सहर होती है
साँस भरने को तो जीना नहीं कहते या रब
दिल ही दुखता है न अब आस्तीन तर होती है
जैसे जागी हुई आँखों में चुभें काँच के ख़्वाब
रात इस तरह दीवानों की बसर होती है
ग़म ही दुश्मन है मेरा, ग़म ही को दिल ढूँढ़ता है
एक लम्हे की जुदाई भी अगर होती है
एक मरकज़ की तलाश एक भटकती खुश्बू
कभी मंज़िल कभी तम्हीद-ए-सफ़र होती है..!!


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